Posted On: 11-09-2018

केदारनाथ सिंह kedar nath singh

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kedar nath singh ki kavita

अरुण होता 


'अगर नहीं मेरे स्वरों में तुम्हारे स्वर
अगर नहीं हैं मेरे हाथों में तुम्हारे हाथ
अगर नहीं है मेरे शब्दों में तुम्हारी आहट
तो मेरे भाई,
मुझे पछाड़ खाए बादलों की तरह
टूटने दो
टूटने दो'

(तीसरा सप्तक)

'यह पशुओं के बुखार का मौसम है
यानी पूरी ताकत के साथ
जमीन को जमीन
और फावड़े को फावड़ा कहने का मौसम
जब जड़ें
बकरियों के थनों की
गरमाहट का इंतजार करती हैं'

(जमीन पक रही है)

'मेरे शहर के लोगो
यह कितना भयानक है
कि शहर की सारी सीढ़ियाँ मिलकर
जिस महान ऊँचाई तक जाती हैं
वहाँ कोई नहीं रहता'

(यहाँ से देखो)

'तब से कितना समय बीता
हम अब भी चल रहे हैं
आगे-आगे कवि त्रिलोचन
पीछे-पीछे मैं
एक ऐसे बाघ की तलाश में
जो एक सुबह
धरती पर गिर कर टूट जाने से पहले
वह था'

(अकाल में सारस)

'छू लूँ किसी को
लिपट जाऊँ किसी से ?
मिलूँ
पर किस तरह मिलूँ
कि बस मैं ही मिलूँ
और दिल्ली न आए बीच में'

(उत्तर कबीर और अन्य कविताएँ)

'पर मेरी आँखें खिड़की के पार
बर्लिन की उस टूटी दीवार पर टिकी हैं
जहाँ वह पागल स्त्री गजल को चीरती हुई
लगाए जा रही है अब भी चक्कर पर चक्कर'

(तालस्ताय और साइकिल)

'कितना भव्य था
एक सूखते हुए वृक्ष की फुनगी पर
महज तीन-चार पत्तों का हिलना'


हमारे समय के वरिष्ठतम कवि केदारनाथ सिंह (1934) ने 1952-53 के आसपास कविता-लेखन शुरू किया था। साठ से अधिक कविता-वर्ष पूरा कर चुके केदार जी ने समकालीन कविता को नई गति और दिशा प्रदान की है। उन्होंने तीन-चार पीढ़ियों के कवियों को प्रभावित किया है। कविता लिखने के गुर सिखाए हैं। उनकी पीढ़ी तथा परवर्ती पीढ़ी के कवियों ने उन्हें पढ़कर, गुनकर बहुत कुछ सीखा है। आगे भी ऐसा होगा। केदार जी ने समकालीन भारतीय कविता को समृद्ध किया है न कि केवल हिंदी की दुनिया को। 'अकाल में सारस' का विभिन्न भाषाओं में अनुवाद होने के पश्चात उनका प्रभाव किस रूप में भारतीय कविता पर पड़ा, इसका अध्ययन बड़ा दिलचस्प होगा। बहरहाल, यहाँ केदारनाथ सिंह के कवि-कर्म पर छिट-पुट विचार प्रस्तुत किए जाने का प्रयास किया जा रहा है।

'तीसरा सप्तक' (1959) में कवि की कविताएँ सम्मिलित हुई थीं। इस सप्तक की कविताओं ने न केवल कवि को साहित्य की दुनिया में परिचित किया बल्कि उन्हें प्रतिष्ठा भी दिलाई। इसके बाद 'अभी बिल्कुल अभी'(1960), 'जमीन पक रही है' (1980), 'यहाँ से देखो' (1983), 'अकाल में सारस' (1988)। 'उत्तर कबीर और अन्य कविताएँ' (1995), 'बाघ'(1996), 'तालस्ताय और साइकिल (2005), और सद्यतम कविता-संग्रह 'सृष्टि पर पहरा (2014), प्रकाशित हुए। बासठ-तिरसठ वर्षों की सृजनशीलता में आठ कविता-संग्रह और कुछ कविताओं को संख्या के आधार पर विवेचित करने से भयानक भूल होगी। केदार जी ने संख्या पर कभी ध्यान दिया ही नहीं। जल्दबाजी दिखाई नहीं। दो संग्रहों के बीच बीस वर्षों का अंतर होने पर भी उन्होंने जब तक कुछ नए ट्रेंड स्थापित नहीं किए तब तक नया संग्रह आने न दिया। इस अर्थ में केदारनाथ सिंह 'ट्रेंड सेटर' कवि हैं।

कवि का जीवनानुभव व्यापक और सघन रहा है। गाँव, देहात, शहर, पहाड़ से लेकर महानगर तक के तमाम अनुभवों को कवि ने अपने रचना-संसार में पिरोया है। अतः उनकी कविताओं में ग्राम-चेतना है तो नगरीय जीवनबोध भी, कस्बाई जिंदगी का यथार्थ अंकित हुआ है तो लोक-भूमि की सुगंध भी मौजूद है। अकेलेपन की त्रासदी हो अथवा संघर्षशीलता, बाजारवादी अर्थव्यवस्था के दुष्परिणाम हो अथवा अदम्य जिजीविषा; कवि ने जीवन के विविध रंगों और अनुभूतिओं को अत्यंत संवेदनशीलता के साथ उकेरा है। कवि ने जिस सहजता के साथ जीवन स्पंदनों को अंकित किया है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। अक्सर कवि की कविताएँ पढ़कर पाठक चकित तथा स्तंभित रह जाता है कि केदार जी असाधारण विषयों तथा सूक्ष्म संवेदनाओं को सरलतम रूप में अभिव्यक्त कैसे कर पाते हैं। असाधारण को साधारण और साधारण को असाधारण बनाने की सामर्थ्य केदार जी की है। यह उनकी सबसे बड़ी विशेषता है।

(दो)

केदारनाथ सिंह का जन्म उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के अंतर्गत चकिया गाँव में हुआ था। यहाँ की भाषा भोजपुरी है। इस भोजपुरी की मिठास कवि के व्यक्तित्व में है और उनकी कविताओं में भी। भोजपुरी की बेहद आत्मीयता और सादगी से परिचित होना है तो केदारनाथ सिंह की कविताएँ पढ़ी जा सकती हैं। कवि में भोजपुर का लोक और उस लोक में कवि नमक और पानी की तरह घुले-मिले पाए जाते हैं। अपनी भाषा, बोली-बानी और अपने लोक से अभिन्न जुड़ाव और लगाव रहा है कवि का।

केदार जी की कवितों की जीवनी शक्ति लोक जीवन का सौंदर्य और संघर्ष है। लोक में बिखरे तथा छितरे पड़े विविध प्रकार के भावों और विचारों को, सौंदर्य के तत्वों को कवि ने सघन लोक-संवेदनात्मक दृष्टि के साथ बखूबी चित्रित किया है। 'तीसरा सप्तक' में संकलित कवि की कविताओं से लेकर 'सृष्टि पर पहरा' तक की कविताओं में लोक चेतना मुखरित होती पाई जाती है। अपनी प्रारंभिक रचनाओं में भले ही वे प्रेम संबंधी हों अथवा किसी अन्य विषय पर आधारित, कवि ने लोक को पिरोया है -

"रुको, आँचल में तुम्हारे
यह समीरन बाँध दूँ, यह टूटता प्रन बाँध दूँ!
एक जो इन उँगलियों में
कहीं उलझा रह गया है
फूल-सा वह काँपता क्षण बाँध दूँ !"

'अभी बिल्कुल अभी' में पाठकों को लग सकता है कि कवि की 'लोक-भूमि' उससे छूट रही है। लेकिन, ऐसा नहीं है। कवि गाँव छोड़ शहर आ जाता है लेकिन उसकी स्मृति में वह लोक अब भी रचा-बसा है। कवि की ग्राम-चेतना में लोक-चेतना समाहित है। शहर या महानगर में रहकर गाँव की स्मृतियों में तल्लीन हो जाना 'नास्टाल्जिक' होना नहीं है, बल्कि गाँव और उसके लोक में जीना भी है। सभ्यता समीक्षा भी है। केदार जी की कविता के लोकतंत्र को हम उनकी 'भोजपुरी' शीर्षक कविता में देख सकते हैं। कहा जा सकता है कि कवि ने उक्त लोकभाषा के सकारात्मक पहलुओं को निराले अंदाज में तथा गहरी संवेदनशीलता के साथ उजागर किया है -

'लोकतंत्र के जन्म से बहुत पहले का
एक जिंदा ध्वनि-लोकतंत्र है यह
जिसके एक छोटे से 'हम' में
तुम सुन सकते हो करोड़ों
मैं की धड़कनें'

इसी कविता में कवि ने लिखा है - 'जबान इसकी सबसे बड़ी लाइब्रेरी है आज भी'। इसी तरह कवि के कविता-लोक से परिचित करानेवाली 'देश और घर' की निम्नलिखित पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं -

'हिंदी मेरा देश है
भोजपुरी मेरा घर
घर से निकलता हूँ
तो चला जाता हूँ देश में
देश से छुट्टी मिलती है
तो लौट आता हूँ घर'

इस संदर्भ में केदार जी की 'देवनागरी' कविता की कुछ पंक्तियाँ ध्यातव्य हैं -

'कभी देखना ध्यान से
किसी अक्षर में झाँककर
वहाँ रोशनाई के तल में
एक जरा-सी रोशनी
तुम्हें हमेशा दिखाई पड़ेगी
यह मेरे लोगों का उल्लास है
जो ढल गया है मात्राओं में
अनुस्वार में उतर आया है
मेरा कंठावरोध है'

'एक पुरबिहा का आत्मकथ्य' में कवि ने स्पष्टतया कहा है -

'पर ठीक इसी समय
बगदाद में जिस दिल को
चीर गई गोली
वहाँ भी हूँ / हर गिरा खून
अपने अँगोछे से पोंछता
मैं वही पुरबिहा हूँ
जहाँ भी हूँ।'

उपर्युक्त उद्धरणों से यह न समझा जाए कि कवि अपनी बोली-बानी, भाषा को श्रेष्ठ और अन्य लोकभाषाओं को हीन मान रहा है। दरअसल, लोकभाषा और लोक-जीवन को बचाए रखने की जरूरत है। साम्राज्यवादी शक्तियाँ इनका समूल विनाश करना चाहती हैं। सच तो यह है कि उन शक्तियों को पराजित करने के लिए लोक ही सबसे कारगर हथियार बन सकता है। अतः लोकभाषाओं की प्रासंगिकता है। ये भाषाएँ हमें जोड़ती हैं, मिलाती हैं। संघबद्ध करती हैं। लोक-भाषा ने ऐतिहासिक भूमिका निभाई है। अतः ये लोक-भाषाएँ आगे भी सार्थक सिद्ध होंगी। जैसे कि वर्नाक्युलर प्रेस एक्ट पारित होने के दौरान बिहार में महेंद्र मिसिर के लोक गीतों की महती भूमिका रही थी। केदार जी को भिखारी ठाकुर का स्मरण हो आना कतई निष्प्रयोजन नहीं है। बीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक में रची गई 'भिखारी ठाकुर' की निम्नलिखित पंक्तियाँ पढ़ी जा सकती हैं -

'पर मेरा ख्याल है
चर्चिल को सब पता था
शायद यह भी कि रात के तीसरे पहर
जब किसी झुरमुट में
ठनकता था गेहुँअन
तो नाच के किसी अँधेरे कोने से
धीरे-धीरे उठती थी
एक लंबी और अकेली
भिखारी ठाकुर की आवाज
और ताल के जल की तरह
हिलने लगती थीं
बोली की सारी
सोई हुई क्रियाएँ'

केदार जी 'लोक' को शक्ति को उजागर करते हैं। लोक की सामर्थ्य को उद्घाटित करने के उद्देश्य से वे लोक संवेदना को महत्व देते हैं। लोकभाषाएँ न केवल किसी मानक भाषा को समृद्ध करती हैं बल्कि वे विभिन्न लोकभाषी जनों को भावात्मक एकता के सूत्र में पिरोती हैं। कवि के शब्दों में -

'संतन को कहाँ सीकरी सों काम
सदियों पुरानी एक छोटी-सी पंक्ति
और उसमें इतना ताप
कि लगभग पाँच सौ वर्षों से हिला रही है हिंदी को'

'हिंदी' शीर्षक कविता में कवि ने भाषा को भाषा के रूप में ही देखना चाहा है। भाषा सिर्फ भाषा होती है। 'राज नहीं भाषा' अर्थात भाषा के सामने राज की कोई महत्ता नहीं है। उसने लिखा भी है -

'सारे व्याकरण में
एक कारक की बेचैनी है
एक तद्भव का दुख
तत्सम के पड़ोस में'

केदार जी की कविता अपनी जड़ों से उत्पन्न होती है। उनसे ऊर्जा पाती है और उसके बल पर समय और समाज को विनिर्मित करती है। नागार्जुन, त्रिलोचन की तरह केदार जी का अपनी जड़ के प्रति अपार लगाव है। जनपदीय चेतना से संबद्धता है। इसलिये रोज-ब-रोज हमारी आँखों में दिखनेवाली चीजें जो अक्सर हमसे छूट जाती हैं यानी जिन पर हमारी नजर नहीं जाती, उन्हें यह कवि बड़ी शिद्दत के साथ प्रस्तुत कर देता है। उनमें छिपे जीवन-रहस्य के मर्म को उद्घाटित कर देता है। ऐसा कर पाना कवि के अपनी मिट्टी, जमीन, जल, नदी,पेड़-पौधे से गहरी संपृक्ति का परिणाम है। 'गाँव आने पर' कविता में गाँव से कवि का आत्मीय जुड़ाव दिखाई पड़ता है। हिंदी के जो आलोचक समकालीन कविता में गाँव की गैर मौजूदगी का फतवा देते हैं, उन्हें केदार जी की यह कविता पढ़नी चाहिए। इस कविता में कवि ने गाँव के बने रहने की इच्छा जाहिर की है। अपने लोगों के बीच अपनत्व में जीना चाहा है। एक गहरा आकर्षण है कवि का अपने गाँव से -

'क्या करूँ मैं ?
क्या करूँ, क्या करूँ कि लगे
कि मैं इन्हीं में से हूँ
इन्हीं का हूँ
कि यही हैं मेरे लोग
जिनका मैं दम भरता हूँ कविता में
और यही, यही जो मुझे कभी नहीं पढ़ेंगे'

अपने आठवें कविता संग्रह को कवि ने समर्पित भी किया है - 'अपने गाँव के लोगों को / जिन तक यह किताब / कभी नहीं पहुँचेगी'। कवि की चिंता व्यापक है। उसने बिना कहे दारुण समय को बिडंबनाओं को मूर्त रूप दिया है। 'कभी नहीं पढ़ेंगे' और 'कभी नहीं पहुँचेगी' में एक करुण वेदना है जिससे समय का सच भी उजागर होता है। 'हीरा भाई' कविता के माध्यम से भी कवि की बुनियादी चिंता बड़ी तीव्रता के साथ व्यंजित होती है। कवि ने लिखा है -

'एक पूरा चरक-संहिता होता था
उनका जर्जर थैला
जिनसे मवेशी भी ठीक हो जाते थे
और कभी-कभी आदमी भी
आदमी और पशु के बीच के
अंतिम लचकहवा पुल थे हीरा भाई।"

'अगर इस बस्ती से गुजरो', 'जैसे दिया सिराया जाता है' जैसी कविताओं को 'मांझी का पुल', 'पर्व स्नान' आदि कविताओं के साथ मिला कर पढ़ा जाए तो केदार जी का लोक तथा उसका सौंदर्य अधिक स्पष्ट हो सकता है। इस पर चर्चा किए बिना यहाँ इतना कहा जा सकता है कि केदारनाथ सिंह के रचना-संसार में लोक का बहुरंगी चित्रण मिलता है। इनकी कविता में लोक गहरे रूप से संपृक्त है। केदार जी लोक से कविता रचने की ऊर्जा पाते हैं और उसे पाठकों के हृदय पर अंकित कर देते हैं।