Posted On: 11-09-2018

kumar vishwas

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ये इतने लोग कहाँ जाते हैं सुबह-सुबह YE ITNE LOG KAHA JATE HAI SUBAH SUBAH

ये इतने लोग कहाँ जाते हैं सुबह-सुबह?
ढेर सी चमक-चहक चेहरे पे लटकाए हुए
हंसी को बेचकर बेमोल वक़्त के हाथों
शाम तक उन ही थक़ानो में लौटने के लिए
ये इतने लोग कहाँ जाते हैं सुबह-सुबह?

ये इतने पाँव सड़क को सलाम करते हैं
हरारतों को अपनी बक़ाया नींद पिला
उसी उदास और पीली सी रौशनी में लिपट
रात तक उन ही मकानों में लौटने के लिए
ये इतने लोग कहाँ जाते हैं सुबह-सुबह?
शाम तक उन ही थकानांे में लौटने के लिए!

ये इतने लोग, कि जिनमे कभी मैं शामिल था
ये सारे लोग जो सिमटे तो शहर बनता है
शहर का दरिया क्यों सुबह से फूट पड़ता है
रात की सर्द चट्टानों में लौटने के लिए
ये इतने लोग कहाँ जाते हैं सुबह-सुबह?
शाम तक उन ही थकानों में लौटने के लिए!

ये इतने लोग क्या इनमें वो लोग शामिल हैं
जो कभी मेरी तरह प्यार जी गए होंगे?
या इनमें कोई नहीं जि़न्दा सिर्फ़ लाशें हैं
ये भी क्या जि़न्दगी का ज़हर पी गए होंगे?
ये सारे लोग निकलते हैं घर से, इन सबको
इतना मालूम है, जाना है, लौट आना है

ये सारे लोग भले लगते हों मशीनों से
मगर इन जि़न्दा मशीनों का इक ठिकाना है
मुझे तो इतना भी मालूम नहीं जाना है कहाँ?
मैंने पूछा नहीं था, तूने बताया था कहाँ?
ख़ुद में सिमटा हुआ, ठिठका सा खड़ा हूँ ऐसे
मुझपे हँसता है मेरा वक़्त, तेरे दोनों जहाँ

जो तेरे इश्क़ में सीखे हैं रतजगे मैंने
उन्हीं की गूँज पूरी रात आती रहती है
सुबह जब जगता है अम्बर तो रौशनी की परी
मेरी पलकों पे अंगारे बिछाती रहती है
मैं इस शहर में सबसे जुदा, तुझ से, ख़ुद से
सुबह और शाम को इकसार करता रहता हूँ

मौत की फ़ाहशा औरत से मिला कर आँखें
सुबह से जि़न्दगी पर वार करता रहता हूँ
मैं कितना ख़ुश था चमकती हुई दुनिया में मेरी
मगर तू छोड़ गया हाथ मेरा मेले में
इतनी भटकन है मेरी सोच के परिंदों में
मैं ख़ुद से मिलता नहीं भीड़ में, अकेले में

जब तलक जिस्म ये मिट्टी न हो फिर से, तब तक
मुझे तो कोई भी मंजि़ल नज़र नहीं आती
ये दिन और रात की साजि़श है, वगरना मेरी
कभी भी शब नहीं ढलती, सहर नहीं आती
तभी तो रोज़ यही सोचता रहता हूँ मैं
ये इतने लोग कहाँ जाते हैं सुबह-सुबह