साजन! होली आई है!
"माँ कह एक कहानी।"बेटा समझ लिया क्या तूने मुझको अपनी नानी?""कहती है मुझसे यह चेटी, तू मेरी नानी की बेटीकह माँ कह लेटी ही लेटी, राजा था या रानी?माँ कह एक कहानी।""तू है हठी, मानधन मेरे, सुन उपवन में बड़े सवेरे,तात भ्रमण करते थे तेरे, जहाँ सुरभी मनमानी।""जहाँ सुरभी मनमानी! हाँ माँ यही कहानी।"वर्ण वर्ण के फूल खिले थे, झलमल कर हिमबिंदु झिले थे,हलके झोंके हिले मिले थे, लहराता था पानी।""लहराता था पानी, हाँ हाँ यही कहानी।""गाते थे खग कल कल स्वर से, सहसा एक हँस ऊपर से,गिरा बिद्ध होकर खर शर से, हुई पक्षी की हानी।""हुई पक्षी की हानी? करुणा भरी कहानी!"चौंक उन्होंने उसे उठाया, नया जन्म सा उसने पाया,इतने में आखेटक आया, लक्ष सिद्धि का मानी।""लक्ष सिद्धि का मानी! कोमल कठिन कहानी।""माँगा उसने आहत पक्षी, तेरे तात किन्तु थे रक्षी,तब उसने जो था खगभक्षी, हठ करने की ठानी।""हठ करने की ठानी! अब बढ़ चली कहानी।"हुआ विवाद सदय निर्दय में, उभय आग्रही थे स्वविषय में,गयी बात तब न्यायालय में, सुनी सब ने जानी।""सुनी सब ने जानी! व्यापक हुई कहानी।"राहुल तू निर्णय कर इसका, न्याय पक्ष लेता है किसका?""माँ मेरी क्या बानी? मैं सुन रहा कहानी।कोई निरपराध को मारे तो क्यों न उसे उबारे?रक्षक पर भक्षक को वारे, न्याय दया का दानी।""न्याय दया का दानी! तूने गुणी कहानी।"
तोड़ो तोड़ो तोड़ोये पत्थर ये चट्टानेंये झूठे बंधन टूटेंतो धरती को हम जानेंसुनते हैं मिट्टी में रस है जिससे उगती दूब हैअपने मन के मैदानों पर व्यापी कैसी ऊब हैआधे आधे गाने
तोड़ो तोड़ो तोड़ोये ऊसर बंजर तोड़ोये चरती परती तोड़ोसब खेत बनाकर छोड़ोमिट्टी में रस होगा ही जब वह पोसेगी बीज कोहम इसको क्या कर डालें इस अपने मन की खीज को?गोड़ो गोड़ो गोड़ो
बाँध लिया तुमने प्राणों को फूलों के बंधन मेंएक मधुर जीवित आभा सी लिपट गई तुम मन में!बाँध लिया तुमने मुझको स्वप्नों के आलिंगन में!तन की सौ शोभाएँ सन्मुख चलती फिरती लगतींसौ-सौ रंगों में, भावों में तुम्हें कल्पना रँगती,मानसि, तुम सौ बार एक ही क्षण में मन में जगती!तुम्हें स्मरण कर जी उठते यदि स्वप्न आँक उर में छवि,तो आश्चर्य प्राण बन जावें गान, हृदय प्रणयी कवि?तुम्हें देख कर स्निग्ध चाँदनी भी जो बरसावे रवि!तुम सौरभ-सी सहज मधुर बरबस बस जाती मन में,पतझर में लाती वसंत, रस-स्रोत विरस जीवन में,तुम प्राणों में प्रणय, गीत बन जाती उर कंपन में!तुम देही हो? दीपक लौ-सी दुबली कनक छबीली,मौन मधुरिमा भरी, लाज ही-सी साकार लजीली,तुम नारी हो? स्वप्न कल्पना सी सुकुमार सजीली ?तुम्हें देखने शोभा ही ज्यों लहरी सी उठ आई,तनिमा, अंग भंगिमा बन मृदु देही बीच समाई!कोमलता कोमल अंगों में पहिले तन घर पाईi
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वह प्रदीप जो दीख रहा है झिलमिल दूर नहीं है;थक कर बैठ गये क्या भाई मन्जिल दूर नहीं है।चिंगारी बन गयी लहू की बूंद गिरी जो पग से;चमक रहे पीछे मुड़ देखो चरण-चिह्न जगमग से।बाकी होश तभी तक, जब तक जलता तूर नहीं है;थक कर बैठ गये क्या भाई मन्जिल दूर नहीं है।अपनी हड्डी की मशाल से हृदय चीरते तम का;सारी रात चले तुम दुख झेलते कुलिश का।एक खेय है शेष, किसी विध पार उसे कर जाओ;वह देखो, उस पार चमकता है मन्दिर प्रियतम का।आकर इतना पास फिरे, वह सच्चा शूर नहीं है;थककर बैठ गये क्या भाई! मंज़िल दूर नहीं है।दिशा दीप्त हो उठी प्राप्त कर पुण्य-प्रकाश तुम्हारा;लिखा जा चुका अनल-अक्षरों में इतिहास तुम्हारा।जिस मिट्टी ने लहू पिया, वह फूल खिलाएगी ही;अम्बर पर घन बन छाएगा ही उच्छ्वास तुम्हारा।और अधिक ले जाँच, देवता इतना क्रूर नहीं है;थककर बैठ गये क्या भाई! मंज़िल दूर नहीं है।
मैं क्या कर सकता था
किसी का बेटा मर गया था
सांत्वना के दो शब्द कह सकता था किसी ने कहा बाबू जी मेरा घर बाढ़ में बह गया तो उस पर यकीन करके उसे दस रुपये दे सकता था किसी अंधे को सड़क पार करा सकता था रिक्शावाले से भाव न करके उसे मुंहमांगा दाम दे सकता था अपनी कामवाली को दो महीने का एडवांस दे सकता था दफ्तर के चपरासी की ग़लती माफ़ कर सकता था अमेरिका के खिलाफ नारे लगा सकता था वामपंथ में अपना भरोसा फिर से ज़ाहिर कर सकता था वक्तव्य पर दस्तख़त कर सकता था और मैं क्या कर सकता था किसी का बेटा तो नहीं बन सकता था किसी का घर तो बना कर नहीं दे सकता था किसी की आँख तो नहीं बन सकता था रिक्शा चलाने से किसी के फेफड़ों को सड़ने से रोक तो नहीं सकता था और मैं क्या कर सकता था-ऐसे सवाल उठा कर खुश हो सकता थामान सकता था कि अब तो सिद्ध है वाकई मैं एक कवि हूँऔर वक़्त आ चुका है कि मेरी कविताओं के अनुवाद की किताब अबअंग्रेजी में लंदन से छप कर आ जाना चाहिए।
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