राजा विक्रमादित्य - Raja Vikramaditya

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राजा-विक्रमादित् - Raja Vikramaditya

उज्जैन नगरी में एक निडर और बहुत ही साहसी युवक रहता था| उस राज्य के राजा के कोई भी संतान ना होने के कारण और एक दिन राज्य के राजा के आकस्मिक निधन हो जाने के कारन राज गद्दी का कोई भी वारिस नहीं बचा| एक दिन उस युवक को ज्ञात हुआ की राज्य के राजा के निसंतान मर जाने के कारण राज्य के नए राजा की तलाश हो रही है इसलिए उसने भी इस पद हेतु अपना नाम प्रस्तावित करने की सोची|

बस युवक था तो निडर और साहसी, एक दिन सवेरे-सवेरे ही वह राजा के महल में पहुँच गया और राज्य के मंत्रीयों को उसके राजा पद के योग्य होने की बात कह डाली| राज्य के मंत्रियों ने उसकी बात सुनी और उसे बताया की तुमसे पहले भी कई लोग इस पद के लिए महल में आएं हैं, परन्तु किसी क्षाप वश  उनका निधन उनके राज्याभिषेक की रात में ही हो गया| अगर तुम भी अपना जीवन सुरक्षित चाहते हो तो एसा मत करो|

युवक काफी निडर था| उसने बिना किसी भय के यह चुनोती स्वीकार कर ली| राज्य के राजा होने की सभी परीक्षाएं उत्तीर्ण करने के बाद उसे राजा के लिए योग्य माना गया| तय समय पर युवक का राज्याभिषेक हुआ| राज्याभिषेक होने के बाद उसने विचार किया, कि हो ना हो अवश्य किसी देव या दानव का रोष इस राज्य पर है| अगर उस देव या दानव को किसी तरह संतुष्ट कर लें तो इस समस्या से बचा जा सकता है| राजा ने राज्याभिषेक की रात को ही अपने कक्ष में अनेक व्यंजन बना कर रख दिओये और खुद एक तलवार लेकर कक्ष के कोने में ही छुपकर बेठ गया|

रात को देवराज इंद्र का द्वारपाल, अग्निवेताल वहां आया और उन व्यंजनों को देखकर प्रसन्न हो गया| उसने सोचा क्यों ना में पहले इन व्यंजनों का लुफ्त उठा लु उसके बाद राजा को लेकर चला जाऊंगा| अग्निवेताल उन व्यंजनों को ग्रहण करके बोला, “राजन! यदि तुम रोज़ मेरे लिए इसे ही स्वादिष्ट व्यंजनों का प्रबंध करोगे तो में तुम्हें अभयदान दूंगा| राजा ने अग्निवेताल का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया और अग्नि वेताल से बोला, “तुम देवराज इंद्र से पुचकार बताओ कि मेरी उम्र कितनी है?”

अगले दिन अग्निवेताल फिर रजा के कक्ष में आया और राजा को बोला, “राजन! आपकी उम्र 100 वर्ष है|” इतना सुनते ही राजा ने तलवार अग्निवेताल की गर्दन पर रख दिया और कहा – “इसका अर्थ है, कि तुम  मेरा अंत 100 वर्ष के पहले नहीं कर सकते|”

अग्निवेताल राजा की बुद्धिमता व् निडरता से अत्यंत प्रसन्न हुआ और उन्हें एक संपन्न राज्य का वरदान दिया| वही राजा आगे चलकर महाराज विक्रमादित्य के नाम से जाने गए|



प्राचीन समय की बात है। उज्जैन में राजा भोज राज्य करते थे। वह बड़े दानी और धर्मात्मा थे। उनके बारे में प्रसिद्ध था कि वह ऐसा न्याय करते कि दूध और पानी अलग-अलग हो जाए। नगरी में एक किसान का एक खेतथा। जिसमें उसने कई साग-सब्जी लगा रखी थी। एक बार की बात है कि खेत में बड़ी अच्छी फसल हुई। पूरी जमीन पर तो खूब तरकारियां आईं, लेकिन खेत के बीचों-बीच थोड़ी-सी जमीन खाली रह गई। हालांकि किसान ने उस जमीन पर भी बीज डाले थे। लेकिन वहां कुछ नहीं उगा।

किसान ने वहां खेत की रखवाली के लिए एक मचान बना लिया। जब भी किसान मचान पर चढ़ता अपने आप चिल्लाने लगता- 'कोई है? राजा भोज को पकड़ लाओ और सजा दो। मेरा राज्य उससे ले लो। जाओ, जल्दी जाओ।'


सारी नगरी में यह बात आग की तरह फैल गई और राजा भोज के कानों में पहुंची। राजा ने कहा, 'मुझे उस खेत पर ले चलो। मैं सारी बातें अपनी आंखों से देखना और कानों से सुनना चाहता हूं।' राजा भोज जब उस जगह पहुंचे तो उन्होंने भी वही देखा कि किसान मचान पर खड़ा है और कह रहा है- 'राजा भोज को फौरन पकड़ लाओ और मेरा राज्य उससे ले लो।

यह सुनकर राजा चिंतित हो गए। चुपचाप महल में लौटा आए। उन्हें रातभर नींद नहीं आई। सवेरा होते ही उन्होंने राज्य के ज्योतिषियों और जानकार पंडितों को इकट्ठा किया। उन्होंने अपनी गोपनीय विद्या से पता लगाया कि उस मचान के नीचे कुछ छिपा है। राजा ने उसी समय आज्ञा दी कि उस जगह को खुदवाया जाए।


खोदते-खोदते जब काफी मिट्टी निकल गई तो अचानक एक सिंहासन प्रकट हुआ। सिंहासन के चारों ओर आठ-आठ पुतलियां यानी कुल बत्तीस पुतलियां खड़ी थीं। सबके अचरज का ठिकाना न रहा। राजा को खबर मिली तो सिंहासन को बाहर निकालने को कहा, लेकिन कई मजदूरों के जोर लगाने पर भी वह सिंहासन टस-से मस न हुआ।

तब एक पंडित ने कहा कि यह सिंहासन देवताओं का बनाया हुआ है। अपनी जगह से तब तक नहीं हटेगा जब तक कि राजा स्वयं इसकी पूजा-अर्चना न करें।


राजा ने ऐसा ही किया। पूजा-अर्चना करते ही सिहांसन ऐसे ऊपर उठ आया, मानो फूलों का हो। राजा बड़े खुश हुए। सिहांसन में कई तरह के रत्न जड़े थे जिनकी चमक अनूठी थी। सिंहासन के चारों ओर 32 पुतलियां बनी थी। उनके हाथ में कमल का एक-एक फूल था। राजा ने हुक्म दिया कि खजाने से रुपया लेकर सिहांसन दुरुस्त करवाएं। सिंहासन सुंदर होने में पांच महीने लगे। अब सिंहासन दमक उठा था। जो भी देखता, देखता ही रह जाता। पुतलियां ऐसी लगती मानो अभी बोल उठेंगीं।

राजा ने पंडितों को बुलाया और कहा, 'आप लोग कोई अच्छा मुहूर्त निकालें। उस दिन मैं इस सिंहासन पर बैठूंगा।' दिन तय किया गया। दूर-दूर तक लोगों को निमंत्रण भेजे गए। तरह-तरह के बाजे बजने लगे, महल में खुशियां मनाई जाने लगी।


पूजा के बाद जैसे ही राजा ने अपना दाहिना पैर बढ़ाकर सिंहासन पर रखना चाहा कि सारी पुतलियां खिलखिला कर हंस पड़ी। लोगों को बड़ा अचंभा हुआ कि यह बेजान पुतलियां कैसे हंस पड़ी। राजा ने अपना पैर खींच लिया और पुतलियों से पूछा, 'ओ सुंदर पुतलियों! सच-सच बताओं कि तुम क्यों हंसी?'

पहली पुतली का नाम था। रत्नमंजरी। राजा की बात सुनकर वह बोली, 'राजन! आप बड़े तेजस्वी हैं, धनी हैं, बलवान हैं, लेकिन इन सब बातों का आपको घमंड भी है। जिस राजा का यह सिहांसन है, वह दानी, वीर और धनी होते हुए भी विनम्र थे। परम दयालु थे। राजा बड़े नाराज हुए।


पुतली ने समझाया, महाराज, यह सिंहासन परम प्रतापी और ज्ञानी राजा विक्रमादित्य का है।

राजा बोले, मैं कैसे मानूं कि राजा विक्रमादित्य मुझसे ज्यादा गुणी और पराक्रमी थे?
पुतली ने कहा, 'ठीक है, मैं तुम्हें राजा विक्रमादित्य की एक कहानी सुनाती हूं।' सिंहासन बत्तीसी की पहली पुतली रत्नमंजरी ने सुनाई एक कहानी। इसके बाद एक एक करने 32 पुतलियों ने राजा विक्रमादित्य की महानता और शिक्षा की कहानियां सु‍नाई।